| Dhoop Bahut Hai Rahat Indori | |
| धूप बहुत है राहत इन्दौरी | |
| धूप बहुत है मौसम जल थल भेजो ना | |
| धूप बहुत है मौसम जल थल भेजो न | |
| बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न | |
| मौल्सरी की शाख़ों पर भी दिए जलें | |
| शाख़ों का केसरिया आँचल भेजो न | |
| नन्ही-मुन्नी सब चहकारें कहाँ गईं | |
| मोरों के पैरों की पायल भेजो न | |
| बस्ती-बस्ती दहशत किसने बो दी है | |
| गलियों-बाज़ारों की हलचल भेजो न | |
| सारे मौसम एक उमस के आदी हैं | |
| छाँव की ख़ुशबू, धूप का संदल भेजो न | |
| मैं बस्ती में आख़िर किस से बात करूँ | |
| मेरे जैसा कोई पागल भेजो न | |
| सिर्फ़ सच और झूठ की मीज़ान में रक्खे रहे | |
| सिर्फ़ सच और झूठ की मीज़ान में रक्खे रहे | |
| हम बहादुर थे मगर मैदान में रक्खे रहे | |
| जुगनुओं ने फिर अँधेरों से लड़ाई जीत ली | |
| चाँद-सूरज घर के रौशनदान में रक्खे रहे | |
| धीरे-धीरे सारी किरनें ख़ुदकुशी करने लगीं | |
| हम सहीफ़ा थे मगर जुज़दान में रक्खे रहे | |
| बंद कमरे खोल कर सच्चाइयाँ रहने लगीं | |
| ख़्वाब कच्ची धूप थे, दालान में रक्खे रहे | |
| सिर्फ़ इतना फ़ासला है ज़िंदगी से मौत का | |
| शाख़ से तोड़े गए गुलदान में रक्खे रहे | |
| ज़िंदगी भर अपनी गूँगी धड़कनों के साथ-साथ | |
| हम भी घर के क़ीमती सामान में रक्खे रहे | |
| सर पर सात आकाश ज़मीं पर सात समुंदर बिखरे हैं | |
| सर पर सात आकाश, ज़मीं पर सात समुंदर बिखरे हैं | |
| आँखें छोटी पड़ जाती हैं इतने मंज़र बिखरे हैं | |
| ज़िंदा रहना खेल नहीं है इस आबाद ख़राबे में | |
| वो भी अक्सर टूट गया है, हम भी अक्सर बिखरे हैं | |
| उस बस्ती के लोगों से जब बातें कीं तो ये जाना | |
| दुनिया भर को जोड़ने वाले अंदर-अंदर बिखरे हैं | |
| इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है | |
| नींदें कमरों में जागी हैं, ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं | |
| आँगन के मासूम शजर ने एक कहानी लिक्खी है | |
| इतने फल शाख़ों पे नहीं थे जितने पत्थर बिखरे हैं | |
| सारी धरती, सारे मौसम, एक ही जैसे लगते हैं | |
| आँखों आँखों क़ैद हुए थे मंज़र मंज़र बिखरे हैं | |
| हंसते रहते हैं मुसलसल हम-तुम | |
| हंसते रहते हैं मुसल्सल हम-तुम | |
| हों ना जायें कहीं पागल हम-तुम | |
| जैसे दरिया किसी दरिया से मिले | |
| आओ! हो जाएँ मुकम्मल हम-तुम | |
| उड़ती फिरती है हवाओं में ज़मीं | |
| रेंगते फिरते हैं पैदल हम-तुम | |
| प्यास सदियों की लिए आँखों में | |
| देखते रहते हैं बादल हम-तुम | |
| धूप हमने ही उगाई है यहां | |
| हैं इसी राह का पीपल हम-तुम | |
| शहर की हद ही नहीं आती है | |
| काटते रहते हैं जंगल हम-तुम | |
| हौसले ज़िंदगी के देखते हैं | |
| हौसले ज़िंदगी के देखते हैं | |
| चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं | |
| नींद पिछली सदी की ज़ख़्मी है | |
| ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं | |
| रोज़ हम इस अँधेरी धुँध के पार | |
| क़ाफ़िले रौशनी के देखते हैं | |
| धूप इतनी कराहती क्यों है | |
| छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं | |
| टुकटुकी बाँध ली है आँखों ने | |
| रास्ते वापसी के देखते हैं | |
| पानियों से तो प्यास बुझती नहीं | |
| आइए ज़हर पी के देखते हैं | |
| हमें दिन-रात मरना चाहिए था | |
| हमें दिन-रात मरना चाहिए था | |
| मियाँ कुछ कर गुज़रना चाहिए था | |
| बहुत ही ख़ूबसूरत है ये दुनिया | |
| यहाँ कुछ दिन ठहरना चाहिए था | |
| मुझे तू ने किनारे से है जाना | |
| समंदर में उतरना चाहिए था | |
| यहाँ सदियों से तारीकी जमी है | |
| मेरी शब को सिहरना चाहिए था | |
| अकेली रात बिस्तर पर पड़ी है | |
| मुझे इस दिन से डरना चाहिए था | |
| डुबोकर मुझको ख़ुश होता है दरिया | |
| उसे तो डूब मरना चाहिए था | |
| किसी से बेवफ़ाई की है मैंने | |
| मुझे इक़रार करना चाहिए था | |
| ये देखो किरचियाँ हैं आइनों की | |
| सलीक़े से सँवरना चाहिए था | |
| किसी दिन उसकी महफ़िल में पहुँचकर | |
| गुलों में रंग भरना चाहिए था | |
| फ़लक पर तब्सरा करने से पहले | |
| ज़मीं का क़र्ज़ उतरना चाहिए था | |
| दाव पर मैं भी, दाव पर तू भी है | |
| दाव पर मैं भी, दाव पर तू भी है | |
| बेख़बर मैं भी, बेख़बर तू भी | |
| आस्मां ! मुझसे दोस्ती करले | |
| दरबदर मैं भी, दरबदर तू भी | |
| कुछ दिनों शहर की हवा खा ले | |
| सीख जायेगा सब हुनर तू भी | |
| मैं तेरे साथ, तू किसी के साथ | |
| हमसफ़र मैं भी हमसफ़र तू भी | |
| हैं वफ़ाओं के दोनों दावेदार | |
| मैं भी इस पुलसिरात पर, तू भी | |
| ऐ मेरे दोसत ! तेरे बारे में | |
| कुछ अलग राय थी मगर, तू भी | |
| कौन दरियाओं का हिसाब रखे | |
| कौन दरियाओं का हिसाब रखे | |
| नेकियाँ, नेकियों में डाल आया | |
| ज़िंदगी किस तरह गुज़ारते हैं | |
| ज़िंदगी भर न ये कमाल आया | |
| झूठ बोला है कोई आईना | |
| वर्ना पत्थर में कैसे बाल आया | |
| वो जो दो-गज़ ज़मीं थी मेरे नाम | |
| आसमाँ की तरफ़ उछाल आया | |
| क्यूँ ये सैलाब-सा है आँखों में | |
| मुस्कुराए थे हम, ख़याल आया | |
| मेरे मरने की ख़बर है उसको | |
| मेरे मरने की ख़बर है उसको | |
| अपनी रुसवाई का डर है उसको | |
| अब वह पहला-सा नज़र आता नहीं | |
| ऐसा लगता है नज़र है उसको | |
| मैं किसी से भी मिलूँ, कुछ भी करूं | |
| मेरी नीयत की ख़बर है उसको | |
| भूल जाना उसे आसान नहीं | |
| याद रखना भी हुनर है उसको | |
| रोज़ मरने की दुआ माँगता है | |
| जाने किस बात का डर है उसको | |
| मंज़िलें साथ लिये फिरता है | |
| कितना दुश्वार सफ़र है उसको | |
| सर पर बोझ अँधियारों का है मौला ख़ैर | |
| सर पर बोझ अँधियारों का है मौला ख़ैर | |
| और सफ़र कुहसारों का है मौला ख़ैर | |
| दुश्मन से तो टक्कर ली है सौ-सौ बार | |
| सामना अबके यारों का है मौला ख़ैर | |
| इस दुनिया में तेरे बाद मेरे सर पर | |
| साया रिश्तेदारों का है मौला ख़ैर | |
| दुनिया से बाहर भी निकलकर देख चुके | |
| सब कुछ दुनियादारों का है मौला ख़ैर | |
| और क़यामत मेरे चराग़ों पर टूटी | |
| झगड़ा चाँद-सितारों का है मौला ख़ैर | |
| लिख रहा है हुजरा पीर फ़क़ीरों का | |
| और मंजर दरबारों का है मौला ख़ैर | |
| चौराहों पर वर्दी वाले आ पहुंचे | |
| मौसम फिर त्यौहारों का है मौला ख़ैर | |
| एक ख़ुदा है, एक पयम्बर, एक किताब | |
| झगड़ा तो दस्तारों का है मौला ख़ैर | |
| वक़्त मिला तो मसजिद भी हो आएंगे | |
| बाक़ी काम मज़ारों का है मौला ख़ैर | |
| मैंने 'अलिफ़' से 'ये' तक ख़ुशबू बिखरा दी | |
| लेकिन गांव गंवारों का है मौला ख़ैर | |
| हमें अब इश्क़ का चाला पड़ा है | |
| हमें अब इश्क़ का चाला पड़ा है | |
| बड़े मुँहज़ोर से पाला पड़ा है | |
| कई दिन से नहीं डूबा यह सूरज | |
| हथेली पर मेरी छाला पड़ा है | |
| यह साज़िश धूप की है या हवा की | |
| गुलों का रंग क्यों काला पड़ा है | |
| सफ़र पर मैं तो तनहा जा रहा हूं | |
| यह बस्ती भर में क्यों ताला पड़ा है | |
| मेरी पलकों पे उतरे फिर फ़रिश्ते | |
| समुन्दर फिर तह-ओ-बाला पड़ा है | |
| सुनहरा चांद उतरा है नदी में | |
| किनारे चांद का हाला पड़ा है | |
| यहां पर ख़त्म हैं ऊंची उड़ानें | |
| ज़मीं पर आसमां वाला पड़ा है | |
| उलझकर रह गए हैं सारे मंज़र | |
| हमारी आंख में जाला पड़ा है | |
| हवा है दोपहर तक भीगी-भीगी | |
| सवेरे देर तक पाला पड़ा है | |
| पुराने शहर के मंज़र निकलने लगते हैं | |
| पुराने शहर के मंज़र निकलने लगते हैं | |
| ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं | |
| मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में | |
| मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं | |
| हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र | |
| सितारे धूप पहन कर निकलने लगते हैं | |
| बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है | |
| कभी-कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं | |
| बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला ! | |
| क़रीबी दोस्त भी बच कर निकलने लगते हैं | |
| अगर ख़्याल भी आए कि तुझको ख़त लिक्खूँ | |
| तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं | |
| अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं | |
| अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं | |
| घर के हालात घर से पूछते हैं | |
| क्यूँ अकेले हैं क़ाफ़िले वाले | |
| एक-एक हमसफ़र से पूछते हैं | |
| कितने जंगल हैं इन मकानों में | |
| बस यही शहर भर से पूछते हैं | |
| यह जो दीवार है यह किस की है | |
| हम इधर वह उधर से पूछते हैं | |
| हैं कनीज़ें भी इस महल में क्या | |
| शाहज़ादों के डर से पूछते हैं | |
| क्या कहीं क़त्ल हो गया सूरज | |
| रात से रात-भर से पूछते हैं | |
| जुर्म है ख़्वाब देखना भी क्या | |
| रात-भर चश्म-ए-तर से पूछते हैं | |
| ये मुलाक़ात आख़िरी तो नहीं | |
| हम जुदाई के डर से पूछते हैं | |
| कौन वारिस है छाँव का आख़िर | |
| धूप में हम-सफ़र से पूछते हैं | |
| ये किनारे भी कितने सादा हैं | |
| कश्तियों को भँवर से पूछते हैं | |
| वो गुज़रता तो होगा अब तन्हा | |
| एक-इक रहगुज़र से पूछते हैं | |
| क्या कभी ज़िंदगी भी देखेंगे | |
| बस यही उम्र-भर से पूछते हैं | |
| ज़ख़्म का नाम फूल कैसे पड़ा | |
| तेरे दस्त-ए-हुनर से पूछते हैं | |
| हमने ख़ुद अपनी रहनुमाई की | |
| हमने ख़ुद अपनी रहनुमाई की | |
| और शोहरत हुई ख़ुदाई की | |
| मैंने दुनिया से, मुझ से दुनिया ने | |
| सैकड़ों बार बेवफ़ाई की | |
| खुले रहते हैं सारे दरवाज़े | |
| कोई सूरत नहीं रिहाई की | |
| टूटकर हम मिले हैं पहली बार | |
| ये शुरूआ'त है जुदाई की | |
| सोए रहते हैं ओढ़ कर ख़ुद को | |
| अब ज़रूरत नहीं रज़ाई की | |
| मंज़िलें चूमती हैं मेरे क़दम | |
| दाद दीजे शिकस्ता-पाई की | |
| ज़िंदगी जैसे-तैसे काटनी है | |
| क्या भलाई की, क्या बुराई की | |
| इश्क़ के कारोबार में हमने | |
| जान दे कर बड़ी कमाई की | |
| अब किसी की ज़बाँ नहीं खुलती | |
| रस्म जारी है मुँह-भराई की | |
| शजर हैं अब समर आसार मेरे | |
| शजर हैं अब समर आसार मेरे | |
| उगे आते हैं दावेदार मेरे | |
| मुहाजिर हैं न अब अंसार मेरे | |
| मुख़ालिफ़ हैं बहुत इस बार मेरे | |
| यहाँ इक बूँद का मुहताज हूँ मैं | |
| समुंदर हैं समुंदर पार मेरे | |
| अभी मुर्दों में रूहें फूँक डालें | |
| अगर चाहें तो ये बीमार मेरे | |
| हवाएँ ओढ़ कर सोया था दुश्मन | |
| गए बेकार सारे वार मेरे | |
| मैं आ कर दुश्मनों में बस गया हूँ | |
| यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे | |
| हँसी में टाल देना था मुझे भी | |
| ख़ता क्यूँ हो गए सरकार मेरे | |
| तसव्वुर में न जाने कौन आया | |
| महक उट्ठे दर-ओ-दीवार मेरे | |
| तुम्हारा नाम दुनिया जानती है | |
| बहुत रुस्वा हैं अब अशआर मेरे | |
| भँवर में रुक गई है नाव मेरी | |
| किनारे रह गए इस पार मेरे | |
| मैं ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त कर रहा हूँ | |
| अभी सोए हैं पहरे-दार मेरे | |
| इधर की शय उधर कर दी गई है | |
| इधर की शय उधर कर दी गई है | |
| ज़मीं ज़ेरो-ज़बर कर दी गई है | |
| ये काली रात है दो चार पल की | |
| ये कहने में सहर कर दी गई है | |
| तआरुफ़ को ज़रा फैला दिया है | |
| कहानी मुख्तसर कर दी गई है | |
| इबादत में बसर करनी थी लेकिन | |
| ख़राबों में बसर कर दी गई है | |
| कई ज़र्रात बाग़ी हो चुके हैं | |
| सितारों को ख़बर कर दी गई है | |
| वह मेरी हम-क़दम होने न पाई | |
| जो मेरी हम-सफ़र कर दी गई है | |
| पाँव से आसमान लिपटा है | |
| पाँव से आसमान लिपटा है | |
| रास्तों से मकान लिपटा है | |
| रौशनी है तेरे ख़यालों की | |
| मुझसे रेशम का थान लिपटा है | |
| कर गये सब किनारा कश्ती से | |
| सिर्फ़ इक बादवन लिपटा है | |
| दे तवानाईयां मेरे माबूद ! | |
| जिस्म से ख़ानदान लिपटा है | |
| और मैं सुन रहा हूँ क्या-क्या कुछ | |
| मुझसे एक बेजुबान लिपटा है | |
| सारी दुनिया बुला रही है मगर | |
| मुझसे हिन्दोस्तान लिपटा है | |
| सफ़र में जब भी इरादे जवान मिलते हैं | |
| सफ़र में जब भी इरादे जवान मिलते हैं | |
| खुली हवाएँ, खुले बादबान मिलते हैं | |
| बहुत कठिन है मसाफ़त नई ज़मीनों की | |
| क़दम-क़दम पे नये आसमान मिलते हैं | |
| मैं उस मुहल्ले में एक उम्र काट आया हूँ | |
| जहाँ पे घर नहीं मिलते, मकान मिलते हैं | |
| बात आपस में जो ज़ोर-ज़ोर से करते हैं | |
| सफ़र में ऐसे कई बेज़बान मिलते हैं | |
| जहाँ-जहाँ भी चिराग़ों ने ख़ुदकुशी की है | |
| वहाँ-वहाँ पे हवा के निशान मिलते हैं | |
| रक़ीब, दोस्त, पड़ोसी, अज़ीज़, रिश्तेदार | |
| मेरे ख़िलाफ़ सभी के बयान मिलते हैं | |
| ऊँचे-ऊँचे दरबारों से क्या लेना | |
| ऊँचे-ऊँचे दरबारों से क्या लेना | |
| बेचारे हैं, बेचारों से क्या लेना | |
| जो मांगेंगे तूफ़ानों से मांगेंगे | |
| काग़ज़ की इन पतवारों से क्या लेना | |
| हम ठहरे बंजारे हम बंजारों को | |
| दरवाज़ों और दीवारों से क्या लेना | |
| ख़्वाबों वाली कोई चीज़ नहीं मिलती | |
| सोच रहा हूँ बाज़ारों से क्या लेना | |
| ख़ाली हाथों जीतना है ये जंग हमें | |
| लकड़ी की इन तलवारों से क्या लेना | |
| आग में हम तो बाग़ लगाते हैं हमको | |
| दोज़ख़ ! तेरे अंगारों से क्या लेना | |
| चारागरी का दावा करते फिरते हैं | |
| बस्ती के इन बीमारों से क्या लेना | |
| साथ हमारे कई सुनहरी सदियाँ हैं | |
| हमें शनीचर, इतवारों से क्या लेना | |
| अपना मालिक अपना ख़ालिक़ अफ़ज़ल है | |
| आती-जाती सरकारों से क्या लेना | |
| पाँव पसारो सारी धरती अपनी है | |
| यार ! इजाज़त मक्कारों से क्या लेना | |
| काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं | |
| काम सब ग़ैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं | |
| और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं | |
| आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अज़्मत | |
| हम चराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं | |
| हम पे हाकिम का कोई हुक्म नहीं चलता है | |
| हम क़लंदर हैं शहंशाह लक़ब करते हैं | |
| देखिए जिस को उसे धुन है मसीहाई की | |
| आज कल शहर के बीमार मतब करते हैं | |
| ख़ुद को पत्थर सा बना रक्खा है कुछ लोगों ने | |
| बोल सकते हैं मगर बात ही कब करते हैं | |
| एक इक पल को किताबों की तरह पढ़ने लगे | |
| उम्र भर जो न किया हम ने वो अब करते हैं | |
| किसने दस्तक दी है दिल पर कौन है | |
| किसने दस्तक दी है दिल पर कौन है | |
| आप तो अन्दर हैं बाहर कौन है | |
| रौशनी ही रौशनी है हर तरफ़ | |
| मेरी आँखों में मुन्नवर कौन है | |
| आसमां झुक-झुक के करता है सवाल | |
| आपके कद के बराबर कौन है | |
| हम रखेंगें अपने अश्कों का हिसाब | |
| पूछने वाला समंदर कौन है | |
| सारी दुनिया हैरती है किसलिए | |
| दूर तक मंज़र ब मंज़र कौन है | |
| शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर | |
| शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर | |
| मगर ये हाथ में क्या लाल लाल है ठाकुर | |
| कई मलूल से चेहरे तुम्हारे गाँव में हैं सुना है | |
| तुम को भी इस का मलाल है ठाकुर | |
| ख़राब हालों का जो हाल था ज़माने से | |
| तुम्हारे फैज़ से अब भी बहाल है ठाकुर | |
| इधर तुहारे ख़ज़ाने जवाब देते हैं | |
| उधर हमारी अना का सवाल है ठाकुर | |
| किसी गरीब दुपट्टे का कर्ज़ है इस पर | |
| तुम्हारे पास जो रेशम की शाल है ठाकुर | |
| तुम्हारी लाल हवेली छुपा न पाएगी | |
| हमे ख़बर है कहाँ कितना माल है ठाकुर | |
| दुआ को नन्हे गुलाबों ने हाथ उठाये हैं | |
| बस अब यहाँ से तुम्हारा जवाल है ठाकुर | |
| मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा | |
| मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा | |
| ये पुल-सिरात अगर है तो चल के देखूँगा | |
| सवाल ये है कि रफ़्तार किस की कितनी है | |
| मैं आफ़्ताब से आगे निकल के देखूँगा | |
| मज़ाक़ अच्छा रहेगा ये चाँद-तारों से | |
| मैं आज शाम से पहले ही ढल के देखूँगा | |
| वो मेरे हुक्म को फ़रियाद जान लेता है | |
| अगर ये सच है तो लहजा बदल के देखूँगा | |
| उजाले बाँटने वालों पे क्या गुज़रती है | |
| किसी चराग़ की मानिंद जल के देखूँगा | |
| अजब नहीं कि वही रौशनी मुझे मिल जाए | |
| मैं अपने घर से किसी दिन निकल के देखूँगा | |
| जितना देख आये हैं अच्छा है यही काफ़ी है | |
| जितना देख आये हैं अच्छा है यही काफ़ी है | |
| अब कहाँ जाइयेगा दुनिया है यही काफ़ी है | |
| हमसे नाराज़ है एक सूरज कि पड़े सोते हो | |
| जाग उठने की तमन्ना है बस यही काफ़ी है | |
| अब ज़रूरी तो नहीं है कि वह फलदार भी हो | |
| शाख से पेड़ का रिश्ता है यही काफ़ी है | |
| लाओ मैं तुमको समुन्दर के इलाके लिख दूं | |
| मेरे हिस्से में ये क़तरा है यही काफ़ी है | |
| अब अगर कम भी जियें हम तो कोई रंज नहीं | |
| हमको जीने का सलीक़ा है यही काफ़ी है | |
| क्या ज़रूरी है कभी तुम से मुलाक़ात भी हो | |
| तुमसे मिलने की तमन्ना है यही काफ़ी है | |
| अब सितारों पे कहां जायें तनाबें लेकर, | |
| ये जो मिट्टी का घरौंदा है यही काफ़ी है। | |
| सब को रुस्वा बारी बारी किया करो | |
| सब को रुस्वा बारी बारी किया करो | |
| हर मौसम में फ़तवे जारी किया करो | |
| रातों का नींदों से रिश्ता टूट चुका | |
| अपने घर की पहरे-दारी किया करो | |
| क़तरा क़तरा शबनम गिन कर क्या होगा | |
| दरियाओं की दावे-दारी किया करो | |
| रोज़ क़सीदे लिक्खो गूँगे बहरों के | |
| फ़ुर्सत हो तो ये बेगारी किया करो | |
| शब भर आने वाले दिन के ख़्वाब बुनो | |
| दिन भर फ़िक्र-ए-शब-बेदारी किया करो | |
| चाँद ज़ियादा रौशन है तो रहने दो | |
| जुगनू-भय्या जी मत भारी किया करो | |
| जब जी चाहे मौत बिछा दो बस्ती में | |
| लेकिन बातें प्यारी प्यारी किया करो | |
| रात बदन-दरिया में रोज़ उतरती है | |
| इस कश्ती में ख़ूब सवारी किया करो | |
| रोज़ वही इक कोशिश ज़िंदा रहने की | |
| मरने की भी कुछ तय्यारी किया करो | |
| ख़्वाब लपेटे सोते रहना ठीक नहीं | |
| फ़ुर्सत हो तो शब-बेदारी किया करो | |
| काग़ज़ को सब सौंप दिया ये ठीक नहीं | |
| शेर कभी ख़ुद पर भी तारी किया करो | |
| मौत की तफ़सील होनी चाहिये | |
| मौत की तफ़सील होनी चाहिये | |
| शहर में एक झील होनी चाहिये | |
| चाँद तो हर शब निकलता है मगर | |
| ताक़ में क़न्दील होनी चाहिये | |
| रौशनी जो जिस्म तक महदूद है | |
| रूह में तहलील होनी चाहिये | |
| हुक्म गूंगों का है लेकिन हुक्म है | |
| हुक्म की तामील होनी चाहिये | |
| दिये जलाये तो अंजाम क्या हुआ मेरा | |
| दिये जलाये तो अंजाम क्या हुआ मेरा | |
| लिखा है तेज हवाओं ने मर्सिया मेरा | |
| कहीं शरीफ नमाज़ी कहीं फ़रेबी पीर | |
| कबीला मेरा नसब मेरा सिलसिला मेरा | |
| किसी ने जहर कहा है किसी ने शहद कहा | |
| कोई समझ नहीं पाता है जायका मेरा | |
| मैं चाहता था ग़ज़ल आस्मान हो जाये | |
| मगर ज़मीन से चिपका है काफ़िया मेरा | |
| मैं पत्थरों की तरह गूंगे सामईन में था | |
| मुझे सुनाते रहे लोग वाकिया मेरा | |
| उसे खबर है कि मैं हर्फ़-हर्फ़ सूरज हूँ | |
| वो शख्स पढ़ता रहा है लिखा हुआ मेरा | |
| जहाँ पे कुछ भी नहीं है वहाँ बहुत कुछ है | |
| ये कायनात तो है खाली हाशिया मेरा | |
| बुलंदियों के सफर में ये ध्यान आता है | |
| ज़मीन देख रही होगी रास्ता मेरा | |
| मैं जंग जीत चुका हूँ मगर ये उलझन है | |
| अब अपने आप से होगा मुक़ाबला मेरा | |
| खिंचा-खिंचा मैं रहा ख़ुद से जाने क्यों वरना | |
| बहुत ज्यादा न था मुझसे फ़ासला मेरा | |
| सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आँखों में पानी चाहिए | |
| सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आँखों में पानी चाहिए | |
| ऐ ख़ुदा दुश्मन भी मुझ को ख़ानदानी चाहिए | |
| शहर की सारी अलिफ़-लैलाएँ बूढ़ी हो चुकीं | |
| शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चाहिए | |
| मैं ने ऐ सूरज तुझे पूजा नहीं समझा तो है | |
| मेरे हिस्से में भी थोड़ी धूप आनी चाहिए | |
| मेरी क़ीमत कौन दे सकता है इस बाज़ार में | |
| तुम ज़ुलेख़ा हो तुम्हें क़ीमत लगानी चाहिए | |
| ज़िंदगी है इक सफ़र और ज़िंदगी की राह में | |
| ज़िंदगी भी आए तो ठोकर लगानी चाहिए | |
| मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया | |
| इक समुंदर कह रहा था मुझ को पानी चाहिए | |
| धर्म बूढ़े हो गए मज़हब पुराने हो गए | |
| धर्म बूढ़े हो गए मज़हब पुराने हो गए | |
| ऐ तमाशागार तेरे करतब पुराने हो गए | |
| कैसी चाहत क्या मुरव्वत क्या मुहब्बत क्या ख़ुलूस | |
| इन सभी अल्फ़ाज़ के मतलब पुराने हो गए | |
| आज-कल छुट्टी के दिन भी घर पड़े रहते हैं हम | |
| शाम, साहिल ,तुम, समंदर सब पुराने हो गए | |
| रेंगते रहते हैं हम सदियों से सदियाँ ओढ़कर | |
| हम नए थे ही कहाँ जो अब पुराने हो गए | |
| आस्तीनों में वही खंजर वही हमदर्दियाँ | |
| है नए अहबाब लेकिन ढब पुराने हो गए | |
| एक ही मरकज़ पे आँखें जंग-आलूदा हुईं | |
| चाक पर फिर-फिर के रोज़ो-शब पुराने हो गए | |
| मेरी तेज़ी, मेरी रफ़्तार हो जा | |
| मेरी तेज़ी, मेरी रफ़्तार हो जा | |
| सुबक रौ, उठ कभी तलवार हो जा | |
| अभी सूरज सदा देकर गया है | |
| ख़ुदा के वास्ते बेदार हो जा | |
| है फ़ुर्सत तो किसी से इश्क कर ले | |
| हमारी ही तरह बेकार हो जा | |
| तेरी दुश्मन है तेरी सादालौही | |
| मेरी माने तो तू कुछ दुशवार हो जा | |
| शिकस्ता कश्तियों से क्या उम्मीदें | |
| किनारे सो रहे हैं, पार हो जा | |
| तुझे कया दर्द की लज़्ज़त बताएँ | |
| मसीहा ! आ कभी बीमार हो जा | |
| उसे अब के वफ़ाओं से गुज़र जाने की जल्दी थी | |
| उसे अब के वफ़ाओं से गुज़र जाने की जल्दी थी | |
| मगर इस बार मुझ को अपने घर जाने की जल्दी थी | |
| इरादा था कि मैं कुछ देर तूफ़ाँ का मज़ा लेता | |
| मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी | |
| मैं अपनी मुट्ठियों में क़ैद कर लेता ज़मीनों को | |
| मगर मेरे क़बीले को बिखर जाने की जल्दी थी | |
| मैं आख़िर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता | |
| यहाँ हर एक मौसम को गुज़र जाने की जल्दी थी | |
| वह शाख़ों से जुदा होते हुए पत्तों पे हँसते थे | |
| बड़े ज़िंदा-नज़र थे जिन को मर जाने की जल्दी थी | |
| मैं साबित किस तरह करता कि हर आईना झूटा है | |
| कई कम-ज़र्फ़ चेहरों को उतर जाने की जल्दी थी | |
| तेरे वादे की तेरे प्यार की मोहताज नहीं | |
| तेरे वादे की तेरे प्यार की मोहताज नहीं | |
| ये कहानी किसी किरदार की मोहताज नहीं | |
| आसमां ओढ़ के सोए हैं खुले मैदां में | |
| अपनी ये छत किसी दीवार की मोहताज नहीं | |
| ख़ाली कशकौल पे इतराई हुई फिरती है | |
| ये फ़क़ीरी किसी दस्तार की मोहताज नहीं | |
| ख़ुद कफ़ीली का हुनर सीख लिया है मैंने | |
| ज़िन्दगी अब किसी सरकार की मोहताज नहीं | |
| मेरी तहरीर है चस्पां मेरी पेशानी पर | |
| अब जुबां ज़िल्लत-ए-इज़हार की मोहताज नहीं | |
| लोग होंठों पे सजाए हुए फिरते हैं मुझे | |
| मेरी शोहरत किसी अख़बार की मोहताज नहीं | |
| रोज़ आबाद नये शहर किया करती है | |
| शायरी अब किसी दरबार की मोहताज नहीं | |
| मेरे अख़लाक़ की एक धूम है बाज़ारों में | |
| ये वह शय है जो ख़रीदार की मोहताज नहीं | |
| इसे तूफ़ां ही किनारे से लगा देते हैं | |
| मेरी कश्ती किसी पतवार की मोहताज नहीं | |
| मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं | |
| ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नहीं | |
| ऊँघती रहगुज़र के बारे में | |
| ऊँघती रहगुज़र के बारे में | |
| लोग पूछेंगे घर के बारे में | |
| मील के पत्थरों से पूछता हूँ | |
| अपने एक हमसफ़र के बारे में | |
| मश्वरा कर रहे हैं आपस में | |
| चन्द जुगनू सहर के बारे में | |
| एक सच्ची ख़बर सुनानी है | |
| एक झूठी ख़बर के बारे में | |
| उंगलियों से लहु टपकता है | |
| क्या लिखें चारागर के बारे में | |
| लाख वह गुमशुदा सही लेकिन | |
| जानता है ख़िज़र के बारे में | |
| दरबदर जो थे वह दीवारों के मालिक हो गये | |
| दरबदर जो थे वह दीवारों के मालिक हो गये | |
| मेरे सब दरबान, दरबारों के मालिक हो गये | |
| लफ़्ज़ गूँगे हो चुके, तहरीर अंधी हो चुकी | |
| जितने मुख़बिर थे वे अख़बारों के मालिक हो गये | |
| लाल सूरज आसमां से घर की छत पर आ गया | |
| जितने थे बेकार सब कारों के मालिक हो गये | |
| और अपने घर में हम बैठे रहे मशअल बकफ़ | |
| चन्द जुगनू चांद और तारों के मालिक हो गये | |
| देखते ही देखते कितनी दुकानें खुल गईं | |
| बिकने आए थे वह बाज़ारों के मालिक हो गये | |
| सर बकफ़ थे तो सरों से हाथ धोना पड़ गया | |
| सर झुकाए थे वह दस्तारों के मालिक हो गये | |
| दो गज़ टुकड़ा उजले-उजले बादल का | |
| दो गज़ टुकड़ा उजले-उजले बादल का | |
| याद आता है एक दुपट्टा मलमल का | |
| शहर के मंज़र देख के चीख़ा करता है | |
| मेरे अन्दर इक सन्नाटा जंगल का | |
| बादल हाथी-घोड़े ले कर आते हैं | |
| लेकिन अपना रस्ता तो है पैदल का | |
| मुझसे आकर मेरी जुबां में बात करे | |
| लिखता रहता है जो खाता हर पल का | |
| आते-जाते अंधी आँखें पढ़ती हैं | |
| हर पत्थर पर नाम लिखा है मख़मल का | |
| खुले-खुले से रहने के हम आदी हैं | |
| ध्यान किसे है दरवाज़े की साँक़ल का | |
| देखें किस दिन पहुँचोगे तुम तारों तक | |
| ऊँचाई तक इक रस्ता है दलदल का | |
| गीला दामन गीली-गीली आँखें हैं | |
| हर मौसम में एक मौसम है जल-थल का | |
| मुझको अपने रंग में ढाला दुनिया ने | |
| साँप हुआ हूँ ख़ुद ही अपने सन्दल का | |
| देखें कितना बाज़ारों में आए उछाल | |
| हम सोना हैं और ज़माना पीतल का | |
| दुआओं में वह तुम्हें याद करने वाला है | |
| दुआओं में वह तुम्हें याद करने वाला है | |
| कोई फ़क़ीर की इमदाद करने वाला है | |
| ये सोच-सोच के शर्मिन्दगी-सी होती है | |
| वह हुक्म देगा जो फ़रियाद करने वाला है | |
| ज़मीन ! हम भी तेरे वारिसों में हैं कि नहीं | |
| वह इस सवाल को बुनियाद करने वाला है | |
| यही ज़मीन मुझे गोद लेने वाली है | |
| ये आसमां मेरी इमदाद करने वाला है | |
| ये वक़्त तू जिसे बरबाद करता रहता है | |
| ये वक़्त ही तुझे बरबाद करने वाला है | |
| ख़ुदा दराज़ करे उम्र मेरे दुश्मन की | |
| कोई तो है जो मुझे याद करने वाला है | |
| सबब वह पूछ रहे हैं उदास होने का | |
| सबब वह पूछ रहे हैं उदास होने का | |
| मिरा मिज़ाज नहीं बेलिबास होने का | |
| नया बहाना है हर पल उदास होने का | |
| ये फ़ायदा है तिरे घर के पास होने का | |
| महकती रात के लम्हो ! नज़र रखो मुझ पर | |
| बहाना ढूँढ़ रहा हूँ उदास होने का | |
| मैं तेरे पास बता किस ग़रज़ से आया हूँ | |
| सुबूत दे मुझे चेहरा-शनास होने का | |
| मिरी ग़ज़ल से बना ज़ेहन में कोई तस्वीर | |
| सबब न पूछ मिरे देवदास होने का | |
| कहाँ हो आओ मिरी भूली-बिसरी यादो आओ | |
| ख़ुश-आमदीद है मौसम उदास होने का | |
| कई दिनों से तबीअ'त मिरी उदास न थी | |
| यही जवाज़ बहुत है उदास होने का | |
| मैं अहमियत भी समझता हूँ क़हक़हों की मगर | |
| मज़ा कुछ अपना अलग है उदास होने का | |
| मिरे लबों से तबस्सुम मज़ाक़ करने लगा | |
| मैं लिख रहा था क़सीदा उदास होने का | |
| पता नहीं ये परिंदे कहाँ से आ पहुँचे | |
| अभी ज़माना कहाँ था उदास होने का | |
| मैं कह रहा हूँ कि ऐ दिल इधर-उधर न भटक | |
| गुज़र न जाए ज़माना उदास होने का | |
| अँधेरे चारों तरफ़ सांय-सांय करने लगे | |
| अँधेरे चारों तरफ़ सांय-सांय करने लगे | |
| चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे | |
| तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर | |
| ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे | |
| लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज | |
| परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे | |
| ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू | |
| बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे | |
| झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले | |
| वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे | |
| अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी | |
| सफ़ेद पोश उठे कांय-कांय करने लगे | |
| अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है | |
| अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है | |
| ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है | |
| लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में | |
| यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है | |
| मैं जानता हूँ कि दुश्मन भी कम नहीं लेकिन | |
| हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है | |
| हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है | |
| हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है | |
| सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में | |
| किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है | |
| जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे | |
| किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है | |
| रात की धड़कन जब तक जारी रहती है | |
| रात की धड़कन जब तक जारी रहती है | |
| सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है | |
| जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं | |
| यार तबीअत भारी भारी रहती है | |
| पाँव कमर तक धँस जाते हैं धरती में | |
| हाथ पसारे जब ख़ुद्दारी रहती है | |
| वो मंज़िल पर अक्सर देर से पहुँचे हैं | |
| जिन लोगों के पास सवारी रहती है | |
| छत से उस की धूप के नेज़े आते हैं | |
| जब आँगन में छाँव हमारी रहती है | |
| घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया | |
| घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है | |
| बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते | |
| बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते | |
| एक सच के लिए किस-किस से बुराई लेते | |
| आबले अपने ही अँगारों के ताज़ा हैं अभी | |
| लोग क्यूँ आग हथेली पे पराई लेते | |
| बर्फ़ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है | |
| हम उसे साथ न लेते तो रज़ाई लेते | |
| कितना मानूस-सा हमदर्दों का ये दर्द रहा | |
| इश्क़ कुछ रोग नहीं था जो दवाई लेते | |
| चाँद रातों में हमें डसता है दिन में सूरज | |
| शर्म आती है अंधेरों से कमाई लेते | |
| तुम ने जो तोड़ दिए ख़्वाब हम उन के बदले | |
| कोई क़ीमत कभी लेते तो ख़ुदाई लेते | |
| तो क्या बारिश भी ज़हरीली हुई है | |
| तो क्या बारिश भी ज़हरीली हुई है | |
| हमारी फ़स्ल क्यों नीली हुई है | |
| ये किसने बाल खोले मौसमों के | |
| हवा क्यों इतनी बर्फ़ीली हुई है | |
| किसी दिन पूछिये सूरजमुखी से | |
| कि रंगत किसलिये पीली हुई है | |
| सफ़र का लुत्फ़ बढ़ता जा रहा है | |
| ज़मीं कुछ और पथरीली हुई है | |
| सुनहरी लग रहा है एक-एक पल | |
| कई सदियों में तबदीली हुई है | |
| दिखाया है अगर सूरज ने गुस्सा | |
| तो बालू और चमकीली हुई है | |
| चराग़ों को उछाला जा रहा है | |
| चराग़ों को उछाला जा रहा है | |
| हवा पर रोब डाला जा रहा है | |
| न हार अपनी न अपनी जीत होगी | |
| मगर सिक्का उछाला जा रहा है | |
| वो देखो मय-कदे के रास्ते में | |
| कोई अल्लाह-वाला जा रहा है | |
| थे पहले ही कई साँप आस्तीं में | |
| अब इक बिच्छू भी पाला जा रहा है | |
| मिरे झूटे गिलासों की छका कर | |
| बहकतों को सँभाला जा रहा है | |
| हमी बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन | |
| हमें घर से निकाला जा रहा है | |
| जनाज़े पर मिरे लिख देना यारो | |
| मोहब्बत करने वाला जा रहा है | |
| ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ | |
| ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ | |
| वह इक लिहाफ़ मैं ओढूँ तो सर्दियाँ उड़ जाएँ | |
| ख़ुदा का शुक्र कि मेरा मकाँ सलामत है | |
| हैं इतनी तेज़ हवाएँ कि बस्तियाँ उड़ जाएँ | |
| ज़मीं से एक तअल्लुक़ ने बाँध रक्खा है | |
| बदन में ख़ून नहीं हो तो हड्डियाँ उड़ जाएँ | |
| बिखर-बिखर सी गई है किताब साँसों की | |
| ये काग़ज़ात ख़ुदा जाने कब कहाँ उड़ जाएँ | |
| रहे ख़याल कि मज्ज़ूब-ए-इश्क़ हैं हम लोग | |
| अगर ज़मीन से फूंकें तो आसमाँ उड़ जाएँ | |
| हवाएँ बाज़ कहाँ आती हैं शरारत से | |
| सरों पे हाथ न रक्खें तो पगड़ियाँ उड़ जाएँ | |
| बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर | |
| जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ | |
| खुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है | |
| खुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है | |
| रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है | |
| इक कहानी खत्म करके वो बहुत है मुतमईन | |
| भूल बैठा है कि आगे इक कहानी और है | |
| जो भी मिलता है उसे अपना समझ लेता हूँ मैं | |
| एक बीमारी मुझे ये खानदानी और है | |
| बोरिये पर बैठिए, कुल्हड़ में पानी पीजिए | |
| हम कलन्दर हैं हमारी मेजबानी और है | |
| एक दिन इस शहर की कीमत लगाईं जायेगी | |
| गाँव में थोड़ी बहुत खेती-किसानी और है | |
| कौन फिर पूछेगा गूंगे मुंसिफ़ों से खैरियत | |
| एक ले-देकर हमारी बे-ज़बानी और है | |
| हर मुसाफ़िर है सहारे तेरे | |
| हर मुसाफ़िर है सहारे तेरे | |
| कश्तियां तेरी, किनारे तेरे | |
| तेरे दामन को ख़बर दे कोई, | |
| टूटते रहते हैं तारे तेरे | |
| धूप दरिया में रवानी थी बहुत | |
| बह थक गए चांद सितारे तेरे | |
| तेरे दरवाज़े को जुम्बिश न हुई | |
| मैंने सब नाम पुकारे तेरे | |
| बे तलब आँखों में क्या-क्या कुछ है | |
| वो समझता है इशारे तेरे | |
| कब पसीजेंगे ये बहरे बादल | |
| हैं शज़र हाथ पसारे तेरे | |
| मेरा इक पल भी मुझे मिल न सका | |
| मैंने दिन-रात गुज़ारे तेरे | |
| तेरी आँखें तेरी बीनाई है | |
| तेरे मंज़र हैं नज़ारे तेरे | |
| यह मेरी प्यास बता सकती है | |
| क्यों समंदर हुए खारे तेरे | |
| जो भी मनसूब तेरे नाम से थे | |
| मैंने सब क़र्ज़ उतारे तेरे | |
| तूने लिखा मेरे चेहरे पे धुंआ | |
| मैंने आईने संवारे तेरे | |
| और मेरा दिल वही मुफ़लिस का चिराग़ | |
| चाँद तेरा है सितारे तेरे | |
| ये हर सू जो फ़लक-मंज़र खड़े हैं | |
| ये हर सू जो फ़लक-मंज़र खड़े हैं | |
| न जाने किसके पैरों पर खड़े हैं | |
| तुला है धूप बरसाने पे सूरज | |
| शजर भी छतरियाँ लेकर खड़े हैं | |
| उन्हें नामों से मैं पहचानता हूँ | |
| मेरे दुश्मन मेरे अन्दर खड़े हैं | |
| किसी दिन चाँद निकला था यहाँ से | |
| उजाले आज भी छत पर खड़े हैं | |
| जुलूस आने को है दीदावरों का | |
| नजर नीची किये मंजर खड़े हैं | |
| उजाला-सा है कुछ कमरे के अन्दर | |
| ज़मीनो-आस्माँ बाहर खड़े हैं | |
| अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ | |
| अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ | |
| मैं चाहता था चिराग़ों को आफ़्ताब करूँ | |
| बुतों से मुझको इजाज़त अगर कभी मिल जाए | |
| तो शहर-भर के ख़ुदाओं को बे-नक़ाब करूँ | |
| मैं करवटों के नए ज़ाविये लिखूँ शब-भर | |
| ये इश्क़ है तो कहाँ ज़िंदगी अज़ाब करूँ | |
| है मेरे चारों तरफ़ भीड़ गूँगे-बहरों की | |
| किसे ख़तीब बनाऊँ किसे ख़िताब करूँ | |
| उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है | |
| बहुत हसीं है ये दुनिया इसे ख़राब करूँ | |
| ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़दार करती रही | |
| कहीं अकेले में मिल जाए तो हिसाब करूँ | |
| ज़िन्दगी उम्र से बड़ी तो नहीं | |
| ज़िन्दगी उम्र से बड़ी तो नहीं | |
| ये कहीं मौत की घड़ी तो नहीं | |
| ये अलग बात हम भटक जाएँ | |
| वैसे दुनिया बहुत बड़ी तो नहीं | |
| टूट सकता है ये तअल्लुक़ भी | |
| इश्क है कोई हथकड़ी तो नहीं | |
| आते-आते ही आयेगी मंज़िल | |
| रास्ते में कहीं पड़ी तो नहीं | |
| एक खटका-खा है बिछड़ने का | |
| ये मुलाक़ात की घड़ी तो नहीं | |
| एक जंगल है दूर-दूर तलक | |
| ये मेरे शहर की कड़ी तो नहीं | |
| हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते | |
| हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते | |
| जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते | |
| अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है | |
| उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते | |
| रेंगने की भी इजाज़त नहीं हम को वर्ना | |
| हम जिधर जाते नए फूल खिलाते जाते | |
| मुझ को रोने का सलीक़ा भी नहीं है शायद | |
| लोग हँसते हैं मुझे देख के आते जाते | |
| अबकि मायूस हुआ यारों को रुख़्सत कर के | |
| जा रहे थे तो कोई ज़ख़्म लगाते जाते | |
| हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे | |
| कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते | |
| मैं तो जलते हुए सहराओं का इक पत्थर था | |
| तुम तो दरिया थे मिरी प्यास बुझाते जाते | |
| मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है | |
| मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है | |
| वो एक मौज जो दरिया के पार रहती है | |
| हमारे ताक़ भी बे-ज़ार हैं उजालों से | |
| दिए की लौ भी हवा पर सवार रहती है | |
| फिर उस के बा'द वही बासी मंज़रों के जुलूस | |
| बहार चंद ही लम्हे बहार रहती है | |
| इसी से क़र्ज़ चुकाए हैं मैंने सदियों से | |
| वो ज़िंदगी जो हमेशा उधार रहती है | |
| हमारी शहर के दानिशवरों से यारी है | |
| इसी लिए तो क़बा तार-तार रहती है | |
| मुझे ख़रीदने वालो ! क़तार में आओ | |
| वो चीज़ हूँ जो पस-ए-इश्तिहार रहती है | |
| सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है | |
| सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है | |
| हमारे पाँव की मिट्टी ने सर उठाया है | |
| हमेशा सर पे रही इक चटान रिश्तों की | |
| ये बोझ वो है जिसे उम्र-भर उठाया है | |
| मिरी ग़ुलैल के पत्थर का कार-नामा था | |
| मगर ये कौन है जिस ने समर उठाया है | |
| यही ज़मीं में दबाएगा एक दिन हम को | |
| ये आसमान जिसे दोश पर उठाया है | |
| बुलंदियों को पता चल गया कि फिर मैं ने | |
| हवा का टूटा हुआ एक पर उठाया है | |
| महा-बली से बग़ावत बहुत ज़रूरी है | |
| क़दम ये हम ने समझ सोच कर उठाया है | |
| नाम लिक्खा था आज किस-किस का | |
| नाम लिक्खा था आज किस-किस का | |
| "हाथ दस्ता हुआ है नर्गिस का" | |
| शाख पर उम्र कट गई गुल की | |
| बाग़ है जाने कौन बेहिस का | |
| ख़्वार फिरते हैं आइना होकर | |
| जाने मुंह देखना है किस किस का | |
| बुझ गये चांद सब हवेली के | |
| जल रहा है चिराग़ मुफ़लिस का | |
| सर पे रख कर ज़मीन फिरता हूँ | |
| साथ उसका है मैं नहीं जिस का | |
| 'मीर' जैसा था दो सदी पहले | |
| हाल अब भी वही है मजलिस का | |
| जितने अपने थे, सब पराए थे | |
| जितने अपने थे, सब पराए थे | |
| हम हवा को गले लगाए थे | |
| जितनी कसमे थी, सब थी शर्मिंदा | |
| जितने वादे थे, सर झुकाये थे | |
| जितने आंसू थे, सब थे बेगाने | |
| जितने मेहमां थे, बिन बुलाए थे | |
| सब किताबें पढ़ी-पढ़ाई थीं | |
| सारे किस्से सुने-सुनाए थे | |
| एक बंजर जमीं के सीने में | |
| मैने कुछ आसमां उगाए थे | |
| सिर्फ दो घूंट प्यास कि खातिर | |
| उम्र भर धूप में नहाए थे | |
| हाशिए पर खड़े हूए है हम | |
| हमने खुद हाशिए बनाए थे | |
| मैं अकेला उदास बैठा था | |
| सामने कहकहे लगाए थे | |
| है गलत उसको बेवफा कहना | |
| हम कौन सा धुले-धुलाए थे | |
| आज कांटो भरा मुकद्दर है | |
| हमने गुल भी बहुत खिलाए थे | |
| उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो | |
| उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो | |
| खर्च करने से पहले कमाया करो | |
| ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे | |
| बारिशों में पतंगें उड़ाया करो | |
| दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर | |
| नीम की पत्तियों को चबाया करो | |
| शाम के बाद जब तुम सहर देख लो | |
| कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो | |
| अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर | |
| आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो | |
| चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ | |
| ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो | |
| पहली शर्त जुदाई है | |
| पहली शर्त जुदाई है | |
| इश्क़ बड़ा हरजाई है | |
| गुम हैं होश हवाओं के | |
| किस की खुशबू आई है | |
| ख़्वाब क़रीबी रिश्तेदार | |
| लेकिन नींद पराई है | |
| चांद तराशे सारी उमर | |
| तब कुछ धूप कमाई है | |
| मैं बिछड़ा हूँ डाली से | |
| दुनिया क्यों मुरझाई है | |
| दिल पर किसने दस्तक दी | |
| तुम हो या तन्हाई है | |
| दरिया दरिया नाप चुके | |
| मुट्ठी भर गहराई है | |
| सूरज टूट के बिखरा था | |
| रात ने ठोकर खाई है | |
| कोई मसीहा क्या जाने | |
| ज़ख़्म है या गहराई है | |
| वाह रे पागल वाह रे दिल | |
| अच्छी किसमत पाई है | |
| दरमियाँ एक ज़माना रखा जाए | |
| दरमियां एक ज़माना रक्खा जाए | |
| तब कोई पल सुहाना रक्खा जाए | |
| सर पे सूरज सवार रहता है | |
| पीठ पर शामियाना रक्खा जाए | |
| तो यह अब तय हुआ कि अपने साथ | |
| कोई अपने सिवा न रक्खा जाए | |
| खूब बातें रहेंगी रस्ते भर | |
| धूप से दोस्ताना रक्खा जाए | |
| हों निगाहें ज़मीन पर लेकिन | |
| आसमां पर निशाना रक्खा जाए | |
| ज़ख़्म पर ज़ख़्म का गुमां न रहे | |
| ज़ख़्म इतना पुराना रक्खा जाए | |
| दिल लुटाने में एहतियात रहे | |
| यह ख़ज़ाना खुला न रक्खा जाए | |
| नील पड़ते रहें जबीनों पर | |
| पत्थरों को ख़फ़ा न रक्खा जाए | |
| यार! अब उस की बेवफ़ाई का | |
| नाम कुछ शायराना रक्खा जाए | |
| मौसम की मनमानी है | |
| मौसम की मनमानी है | |
| आँखों आँखों पानी है | |
| साया साया लिख डालो | |
| दुनिया धूप कहानी है | |
| सब पर हँसते रहते हैं | |
| फूलों की नादानी है | |
| हाय ये दुनिया! हाय ये लोग | |
| हाय! यह सब कुछ फ़ानी है | |
| साथ इक दरिया रख लेना | |
| रस्ता रेगिस्तानी है | |
| कितने सपने देख लिये | |
| आँखों को हैरानी है | |
| दिलवाले अब कम कम हैं | |
| वैसे क़ौम पुरानी है | |
| बारिश, दरिया, सागर, ओस, | |
| आँसू पहला पानी है | |
| तुझ को भूले बैंठे हैं | |
| क्या ये कम क़ुर्बानी है | |
| दरिया हमसे आँख मिला | |
| देखें कितना पानी है | |
| दुनिया क्या है मुझसे पूछ | |
| मैंने दुनिया छानी है | |
| नींदें क्या-क्या ख़्वाब दिखाकर ग़ायब हैं | |
| नींदें क्या-क्या ख़्वाब दिखाकर ग़ायब हैं | |
| आंखें तो मौजूद हैं मंज़र ग़ायब हैं | |
| बाक़ी जितनी चीज़ें थीं मौजूद हैं सब | |
| नक्शे में दो-चार समुन्दर ग़ायब हैं | |
| जाने ये तस्वीर में किसका लश्कर है | |
| हाथों में शमशीरें हैं सर ग़ायब हैं | |
| ग़ालिब भी है बचपन भी है शहरों में | |
| मजनूं भी है लेकिन पत्थर ग़ायब हैं | |
| धन्धेबाज़ मुजावर हाकिम बन बैठे | |
| दरगाहों से मस्त कलन्दर ग़ायब हैं | |
| दरवाज़ों पर दस्तक दें तो कैसे दें | |
| घर वाले मौजूद मगर घर ग़ायब हैं | |
| शाम से पहले शाम कर दी है | |
| शाम से पहले शाम कर दी है | |
| क्या कहानी तमाम कर दी है | |
| आज सूरज ने मेरे आँगन में | |
| हर किरन बे नयाम कर दी है | |
| जिस से रहता है आसमां नाराज़ | |
| वह ज़मीं मेरे नाम कर दी है | |
| दोपहर तक तो साथ चल सूरज | |
| तूने रस्ते में शाम कर दी है | |
| चेहरा-चेहरा हयात लोगों ने | |
| आईनों की गुलाम कर दी है | |
| क्या पढ़ें हम कि कुछ क़िताबों ने | |
| रोशनी तक हराम कर दी है | |
| पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है | |
| पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है | |
| वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुश्बू लगाता है | |
| उसे कह दो कि ये ऊँचाइयाँ मुश्किल से मिलती हैं | |
| वो सूरज के सफ़र में मोम के बाज़ू लगाता है | |
| मैं काली रात के तेज़ाब से सूरज बनाता हूँ | |
| मिरी चादर में ये पैवंद इक जुगनू लगाता है | |
| यहाँ लछमन की रेखा है न सीता है मगर फिर भी | |
| बहुत फेरे हमारे घर के इक साधू लगाता है | |
| नमाज़ें मुस्तक़िल पहचान बन जाती है चेहरों की | |
| तिलक जिस तरह माथे पर कोई हिन्दू लगाता है | |
| न जाने ये अनोखा फ़र्क़ इस में किस तरह आया | |
| वो अब कॉलर में फूलों की जगह बिच्छू लगाता है | |
| अँधेरे और उजाले में ये समझौता ज़रूरी है | |
| निशाने हम लगाते हैं ठिकाने तू लगाता है | |
| बढ़ गई है कि घट गई दुनिया | |
| बढ़ गई है कि घट गई दुनिया | |
| मेरे नक़्शे से कट गई दुनिया | |
| तितलियों में समा गया मंज़र | |
| मुट्ठियों में सिमट गई दुनिया | |
| अपने रस्ते बनाये खुद मैंने | |
| मेरे रस्ते से हट गई दुनिया | |
| एक नागन का ज़हर है मुझमे | |
| मुझको डस कर पलट गई दुनिया | |
| कितने खानों में बंट गए हम तुम | |
| कितनी हिस्सों में बंट गई दुनिया | |
| जब भी दुनिया को छोड़ना चाहा | |
| मुझसे आकर लिपट गई दुनिया | |
| नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में | |
| नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में | |
| उजाले पाँव पटकने लगे हैं पानी में | |
| ये कोई और ही किरदार है तुम्हारी तरह | |
| तुम्हारा ज़िक्र नहीं है मिरी कहानी में | |
| अब इतनी सारी शबों का हिसाब कौन रखे | |
| बड़े सवाब कमाए गए जवानी में | |
| चमकता रहता है सूरज-मुखी में कोई और | |
| महक रहा है कोई और रात-रानी में | |
| ये मौज मौज नई हलचलें सी कैसी हैं | |
| ये किस ने पाँव उतारे उदास पानी में | |
| मैं सोचता हूँ कोई और कारोबार करूँ | |
| किताब कौन ख़रीदेगा इस गिरानी में | |
| शाम होती है तो पलकों पे सजाता है मुझे | |
| शाम होती है तो पलकों पे सजाता है मुझे | |
| वह चिराग़ों की तरह रोज़ जलाता है मुझे | |
| मैं हूं ये कम तो नहीं है तेरे होने की दलील | |
| मेरा होना तेरा एहसास दिलाता है मुझे | |
| अब किसी शख़्स में सच सुनने की हिम्मत है कहां | |
| मुश्किलों ही से कोई पास बिठाता है मुझे | |
| कैसे महफ़ूज़ रखूं खुद को अजायब घर में | |
| जो भी आता है यहां हाथ लगाता है मुझे | |
| जाने क्या बनना है तुझको मेरी गीली मिट्टी | |
| कुज़ागर रोज़ बनाता है मिटाता है मुझे | |
| आब-ओ-दाना किसी बिगड़े हुए बच्चे की तरह | |
| मैं जहाँ शाख पे बैठूं के उड़ाता है मुझे | |
| वो मुझे मिल ना सका, इसकी शिकायत कैसी | |
| ये भी अहसान है कि, वो याद तो आता है मुझे | |
| रात बहुत तारीक नहीं है | |
| रात बहुत तारीक नहीं है | |
| लेकिन घर नज़दीक नहीं है | |
| फूलों को समझा दे कोई | |
| हँसते रहना ठीक नहीं है | |
| तनकीदें बारीक हैं जितनी | |
| फ़न उतना बारीक नहीं है | |
| कोई ताज़ा शेर हो नाज़िल | |
| हक माँगा है भीक नहीं है | |
| दिन हैं जितने काले-काले | |
| रात उतनी तारीक नहीं है | |
| आज तुम्हारी याद न आई | |
| आज तबीअत ठीक नहीं है | |
| मुझमें कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या | |
| मुझमें कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या | |
| बंद इक मुद्दत से हूँ, खुल जाऊँ क्या | |
| आजिज़ी, मिन्नत, ख़ुशामद, इल्तिज़ा | |
| और मैं क्या-क्या करूँ, मर जाऊँ क्या | |
| कल यहाँ मैं था जहाँ तुम आज हो | |
| मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊँ क्या | |
| तेरे जलसे में तेरा परचम लिए | |
| सैकड़ों लाशें भी हैं, गिनवाऊँ क्या | |
| एक पत्थर है वो मेरी राह का | |
| गर ना ठुकराऊँ तो ठोकर खाऊँ क्या | |
| फिर जगाया तूने सोये शेर को | |
| फिर वही लहजादराज़ी, आऊँ क्या | |
| उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे | |
| उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे | |
| ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे | |
| दिनों के बाद अचानक तुम्हारा ध्यान आया | |
| ख़ुदा का शुक्र कि उस वक़्त बा-वज़ू हम थे | |
| वो आईना तो नहीं था पर आईने सा था | |
| वो हम नहीं थे मगर यार हू-ब-हू हम थे | |
| ज़मीं पे लड़ते हुए आसमाँ के नर्ग़े में | |
| कभी कभी कोई दुश्मन कभू कभू हम थे | |
| हमारा ज़िक्र भी अब जुर्म हो गया है वहाँ | |
| दिनों की बात है महफ़िल की आबरू हम थे | |
| ख़याल था कि ये पथराव रोक दें चल कर | |
| जो होश आया तो देखा लहू लहू हम थे | |
| मसअला प्यास का यूं हल हो जाए | |
| मसअला प्यास का यूं हल हो जाए | |
| जितना अमृत है हलाहल हो जाए | |
| शहर-ए-दिल में है अजब सन्नाटा | |
| तेरी याद आए तो हलचल हो जाए | |
| ज़िन्दगी एक अधूरी तस्वीर | |
| मौत आए तो मुकम्मल हो जाए | |
| और एक मोर कहीं जंगल में | |
| नाचते-नाचते पागल हो जाए | |
| थोड़ी रौनक है हमारे दम से | |
| वरना ये शहर तो जंगल हो जाए | |
| फिर खुदा चाहे तो आंखें ले ले | |
| बस मेरा ख़्वाब मुकम्मल हो जाए | |
| वो कभी शहर से गुज़रे तो ज़रा पूछेंगे | |
| वो कभी शहर से गुज़रे तो ज़रा पूछेंगे | |
| ज़ख़्म हो जाते हैं किस तरह दवा पूछेंगे | |
| गुम न हो जाएं मकानों के घने जंगल में | |
| कोई मिल जाये तो हम घर का पता पूछेंगे | |
| मेरे सच से उन्हें क्या लेना है मैं जानता हूँ | |
| हाथ कुरआन पे रखवा के वह क्या पूछेंगे | |
| ये रहा नामा-ए-आमाल मगर तुझ से भी | |
| कुछ सवालात तो हम भी ऐ ख़ुदा पूछेंगे | |
| वह कहीं किरनें समेटे हुए मिल जायेगा | |
| कब रफू होगी उजाले की क़बा पूछेंगे | |
| वह जो मुंसिफ़ है तो क्या कुछ भी सज़ा दे देगा | |
| हम भी रखते हैं ज़ुबां पहले ख़ता पूछेंगे | |
| नज़ारा देखिये कलियों के फूल होने का | |
| नज़ारा देखिये कलियों के फूल होने का | |
| यही है वक्त दुआएं क़बूल होने का | |
| उन्हें बताओ के ये रास्ते सलीब के हैं | |
| जो लोग करते हैं दावा रसूल होने का | |
| तमाम उम्र गुज़रने के बाद दुनिया में | |
| पता चला हमें अपने फुजूल होने का | |
| उसूल वाले हैं बेचारे इन फ़रिश्तों ने | |
| मज़ा चखा ही नहीं बे उसूल होने का | |
| है आसमां से बुलन्द उसका मर्तबा जिसको | |
| शर्फ़ है आप के कदमों की धूल होने का | |
| चलो फ़लक पे कहीं मन्ज़िलें तलाश करें | |
| ज़मीं पे कुछ नहीं हासिल हसूल होने का | |
| अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए | |
| अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए | |
| कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए | |
| सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़ | |
| सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए | |
| मस्जिद में दूर दूर कोई दूसरा न था | |
| हम आज अपने आप से मिल-जुल के आ गए | |
| नींदों से जंग होती रहेगी तमाम उम्र | |
| आँखों में बंद ख़्वाब अगर खुल के आ गए | |
| सूरज ने अपनी शक्ल भी देखी थी पहली बार | |
| आईने को मज़े भी तक़ाबुल के आ गए | |
| अनजाने साए फिरने लगे हैं इधर उधर | |
| मौसम हमारे शहर में काबुल के आ गए | |
| मौसम बुलाएंगे तो सदा कैसे आएगी | |
| मौसम बुलाएंगे तो सदा कैसे आएगी | |
| सब खिड़कियां हैं बन्द हवा कैसे आएगी | |
| मेरा खुलूस इधर है उधर है तेरा गुरूर | |
| तेरे बदन पे मेरी क़बा कैसे आएगी | |
| रस्ते में सर उठाए हैं रस्मों की नागिनें | |
| ऐ जान ए इन्तज़ार! बता कैसे आएगी | |
| सर रख के मेरे ज़ानों पे सोई है ज़िन्दगी | |
| ऐसे में आई भी तो कज़ा कैसे आएगी | |
| आंखों में आंसूओं को अगर हम छुपाएंगे | |
| तारों को टूटने की सदा कैसे आएगी | |
| वह बे वफ़ा यहां से भी गुजरा है बारहा | |
| इस शहर की हदों में वफ़ा कैसे आएगी | |
| यहाँ कब थी जहाँ ले आई दुनिया | |
| यहाँ कब थी जहाँ ले आई दुनिया | |
| यह दुनिया को कहाँ ले आई दुनिया | |
| ज़मीं को आसमानों से मिला कर | |
| ज़मीं पर आसमां ले आई दुनिया | |
| मैं ख़ुद से बात करना चाहता था | |
| ख़ुदा को दरमियां ले आई दुनिया | |
| चिराग़ों की लवें सहमी हुई हैं | |
| सुना है आँधियां ले आई दुनिया | |
| जहां मैं था वहां दुनिया कहां थी | |
| वहां मैं हूँ जहां ले आई दुनिया | |
| तवक़्क़ो हमने की थी शाखे-गुल की | |
| मगर तीरो कमाँ ले आई दुनिया | |
| ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी | |
| ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी | |
| हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जाएगी | |
| पाँव पत्थर कर के छोड़ेगी अगर रुक जाइए | |
| चलते रहिए तो ज़मीं भी हम-सफ़र हो जाएगी | |
| जुगनुओं को साथ ले कर रात रौशन कीजिए | |
| रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जाएगी | |
| ज़िंदगी भी काश मेरे साथ रहती उम्र-भर | |
| ख़ैर अब जैसे भी होनी है बसर हो जाएगी | |
| तुम ने ख़ुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा | |
| मैं न कहता था कि दुनिया दर्द-ए-सर हो जाएगी | |
| तल्ख़ियाँ भी लाज़मी हैं ज़िंदगी के वास्ते | |
| इतना मीठा बन के मत रहिए शकर हो जाएगी | |
| बरछी लेकर चाँद निकलने वाला है | |
| बरछी ले कर चांद निकलने वाला है | |
| घर चलिए अब सूरज ढलने वाला है | |
| मंज़रनामा वही पुराना है लेकिन | |
| नाटक का उनवान बदलने वाला है | |
| तौर तरीके बदले नरम उजालों ने | |
| हर जुगनू अब आग उगलने वाला है | |
| धूप के डर से कब तक घर में बैठोगे | |
| सूरज तो हर रोज निकलने वाला है | |
| एक पुराने खेल खिलौने जैसी है | |
| दुनिया से अब कौन बहलने वाला है | |
| दहशत का माहौल है सारी बस्ती में | |
| क्या कोई अख़बार निकलने वाला है | |
| तेरा मेरा नाम ख़बर में रहता था | |
| तेरा मेरा नाम ख़बर में रहता था | |
| दिन बीते, एक सौदा सर में रहता था | |
| मेरा रस्ता तकता था एक चांद कहीं | |
| मैं सूरज के साथ सफ़र में रहता था | |
| सारे मंज़र गोरे-गोरे लगते थे | |
| जाने किस का रूप नज़र में रहता था | |
| मैंने अक्सर आंखें मूंद के देखा है | |
| एक मंज़र जो पस-मंज़र म रहता था | |
| काठ की कश्ती पीठ थपकती रहती थी | |
| दरियाओं का पांव भंवर में रहता था | |
| उजली उजली तस्वीरें सी बनती हैं | |
| सुनते हैं अल्लाह बशर में रहता था | |
| मीलों तक हम चिड़ियों से उड़ जाते थे | |
| कोई मेरे साथ सफ़र में रहता था | |
| सुस्ताती है गर्मी जिस के साये में | |
| ये पौधा कल धूप नगर में रहता था | |
| धरती से जब खुद को जोड़े रहते थे | |
| ये सारा आकाश असर में रहता था | |
| सच का बोझ उठाये हूँ अब पलकों पर | |
| पहले मैं भी ख़्वाब नगर में रहता था | |
| इक नया मौसम नया मंज़र खुला | |
| इक नया मौसम नया मंज़र खुला | |
| कोई दरवाज़ा मेरे अन्दर खुला | |
| एक ग़ज़ल कमरे की छत पर मुन्तसिर | |
| एक कलम रखा है काग़ज़ पर खुला | |
| लेकिन उड़ने की सकत बाकी नहीं | |
| है कई दिन से क़फस का दर खुला | |
| चलते रहने का इरादा शर्त है | |
| जब भी दीवारें उठी हैं दर खुला | |
| हो गया ऐलान फिर एक जंग का | |
| जितने वक़्फ़े में मेरा बकतर खुला | |
| साथ रहता है यही एहसास-ए-जुर्म | |
| किस के ज़िम्मे छोड़ आये घर खुला | |
| अब मयस्सर ही कहां वह तन लेहाफ़ | |
| अब कहां रहता हूं मैं शब भर खुला | |
| मैं ख़ुद अपने आप ही में बन्द था | |
| मुद्दतों के बाद ये मुझ पर खुला | |
| उम्र भर की नींद पूरी हो चुकी | |
| तब कहीं जाकर मेरा बिस्तर खुला | |
| कौन वह मिर्ज़ा असदुल्लाह खां | |
| मुझ से वह तन्हाई में अक्सर खुला | |
| मौसमों का ख़याल रक्खा करो | |
| मौसमों का ख़याल रक्खा करो | |
| कुछ लहू मैं उबाल रक्खा करो | |
| ज़िंदग़ी रोज़ मरती रहती है | |
| ठीक से देख-भाल रक्खा करो | |
| सब लकीरों पे छोड़ रक्खा है | |
| आप भी कुछ कमाल रक्खा करो | |
| याद करते रहा करो माज़ी | |
| इक-इक पल उजाल रक्खा करो | |
| जाने कब सच का सामना हो जाए | |
| कोई रस्ता निकाल रक्खा करो | |
| ग़ालिबों को रखो दिमाग़ों में | |
| दिल यग़ाना मिसाल रक्खा करो | |
| सुल्ह करते रहा करो हरदम | |
| दुश्मनों को निकाल रक्खा करो | |
| ख़ाली-ख़ाली उदास-उदास आँखें | |
| इनमें कुछ ख़्वाब पाल रक्खा करो | |
| फिर वो चाकू चला नहीं सकता | |
| हाथ गरदन में डाल रक्खा करो | |
| लाख सूरज से दोस्ताना हो | |
| चंद जुगनू भी पाल रक्खा करो | |
| मुआफ़िक़ जो फ़िज़ा तैयार की है | |
| मुआफ़िक़ जो फ़िज़ा तैयार की है | |
| बड़ी तदबीर से हमवार की है | |
| यहाँ तुझ-मुझ के हिस्से में ज़ियां है | |
| ये दुनिया दरहमो-दीनार की है | |
| यक़ीं कैसे करूं मैं मर चुका हूँ | |
| मगर सुर्खी यही अख़बार की है | |
| चराग़ों का घराना चल रहा है | |
| चराग़ों का घराना चल रहा है | |
| हवा से दोस्ताना चल रहा है | |
| जवानी की हवाएँ चल रही हैं | |
| बुज़ुर्गों का ख़ज़ाना चल रहा है | |
| मिरी गुम-गश्तगी पर हँसने वालो | |
| मिरे पीछे ज़माना चल रहा है | |
| अभी हम ज़िंदगी से मिल न पाए | |
| तआरुफ़ ग़ाएबाना चल रहा है | |
| नए किरदार आते जा रहे हैं | |
| मगर नाटक पुराना चल रहा है | |
| वही दुनिया वही साँसें वही हम | |
| वही सब कुछ पुराना चल रहा है | |
| ज़्यादा क्या तवक़्क़ो हो ग़ज़ल से | |
| मियाँ, बस आब-ओ-दाना चल रहा है | |
| समुंदर से किसी दिन फिर मिलेंगे | |
| अभी पीना-पिलाना चल रहा है | |
| वही महशर वही मिलने का व'अदा | |
| वही बूढ़ा बहाना चल रहा है | |
| यहाँ इक मदरसा होता था पहले | |
| मगर अब कार-ख़ाना चल रहा है | |
| तूफ़ां तो इस शहर में अक्सर आता है | |
| तूफ़ां तो इस शहर में अक्सर आता है | |
| देखें अबकि किस का नम्बर आता है | |
| यारों के भी दाँत बहुत ज़हरीले हैं | |
| पर हमको भी साँपों का मंतर आता है | |
| सूखे बादल होंठों पर कुछ लिखते हैं | |
| आँखों में सैलाब का मंज़र आता है | |
| तक़रीरों में सबके जौहर खुलते हैं | |
| अंदर जो पलता है बाहर आता है | |
| बच कर रहना, इक क़ातिल इस बस्ती में | |
| काग़ज़ की पोशाक पहनकर आता है | |
| बोता है वो रोज़ तअफ़्फ़ुन ज़हनों में | |
| जो कपड़ों पर इत्र लगाकर आता है | |
| रहमत मिलने आती है पर फैलाए | |
| पलकों पर जब कोई पयम्बर आता है | |
| सूख चुका हूँ फिर भी मेरे साहिल यर | |
| पानी लेने रोज समुन्दर आता है | |
| उन आँखों की नींदें गुम हो जाती हैं | |
| जिन आँखों को ख़्वाब मयस्सर आता है | |
| ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नहीं होती | |
| ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नहीं होती | |
| छोटी मोटी बात पे हिज़रत नहीं होती | |
| पहले दीप जलें तो चर्चे होते थे | |
| और अब शहर जलें तो हैरत नहीं होती | |
| तारीखों की पेशानी पर मोहर लगा | |
| ज़िंदा रहना कोई करामात नहीं होती | |
| सोच रहा हूँ आखिर कब तक जीना है | |
| मर जाता तो इतनी फुर्सत नहीं होती | |
| रोटी की गोलाई नापा करता है | |
| इसी लिए तो घर में बरकत नहीं होती | |
| हमने ही कुछ लिखना पढ़ना छोड़ दिया | |
| वरना ग़ज़ल की इतनी किल्लत नहीं होती | |
| मिसवाकों से चाँद का चेहरा छूता है | |
| बेटा ! इतनी सस्ती जन्नत नहीं होती | |
| बाजारों में ढूंढ रहा हूँ वो चीज़े | |
| जिन चीजों की कोई कीमत नहीं होती | |
| कोई क्या राय दे हमारे बारे में | |
| ऐसों वैसों की तो हिम्मत नहीं होती | |
| ज़मीं बालिश्त भर होगी हमारी | |
| ज़मीं बालिश्त भर होगी हमारी | |
| यहाँ कैसे बसर होगी हमारी | |
| ये काली रात होगी ख़त्म किस दिन | |
| न जाने कब सहर होगी हमारी | |
| इसी उम्मीद पर ये रतजगे हैं | |
| किसी दिन रात भर होगी हमारी | |
| दरे-मस्जिद पे कोई शय पड़ी है | |
| दुआ-ए-बेअसर होगी हमारी | |
| चला हूँ गुमरही को साथ लेकर | |
| यही तो हमसफ़र होगी हमारी | |
| न जाने दिन कहाँ निकलेगा अपना | |
| न जाने शब किधर होगी हमारी | |
| दुआ मांगेंगे कब तक आस्मा से | |
| ज़मीं कब मोतबर होगी हमारी | |
| ये दुनिया कहकशां कहती है जिसको | |
| कभी ये रहगुज़र होगी हमारी | |
| चुभे हैं किस कदर तलुवों में कंकर | |
| सितारों पर नज़र होगी हमारी | |
| बिछड़ने में ही शायद अब मज़ा है | |
| ख़ुशी में आँख तर होगी हमारी | |
| ये आईना फ़साना हो चुका है | |
| ये आईना फ़साना हो चुका है | |
| तुझे देखे ज़माना हो चुका है | |
| वतन के मौसमों अब लौट आओ | |
| तुम्हें देखे ज़माना हो चुका है | |
| दवाएँ क्या, दवा क्या, बद्दुआ क्या | |
| सभी कुछ ताजिराना हो चुका है | |
| अब आंसू भी पुराने हो चुके हैं | |
| समन्दर भी पुराना हो चुका है | |
| चलो दीवाने-ख़ास अब काम आया | |
| परिन्दों का ठिकाना हो चुका है | |
| वही वीरानियां हैं शहरे-दिल में | |
| यहाँ पहले भी आना हो चुका है | |
| तेरी मसरूफ़ियत हम जानते हैं | |
| मगर मौसम सुहाना हो चुका है | |
| मोहब्बत में ज़रूरी हैं वफ़ाएँ | |
| यह नुस्ख़ा अब पुराना हो चुका है | |
| चलो अब हिज्र का भी हम मज़ा लें | |
| बहुत मिलना मिलाना हो चुका है | |
| हजारों सूरतें रोशन हैं दिल में | |
| यह दिल आईना ख़ाना हो चुका है | |
| बची हैं गिनती की चंद साँसें | |
| इस घर का बयाना हो चुका है। | |
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